अपने ही पहरुओं से शर्मसार लोकतंत्र लोकतंत्र का नाम आते ही लोग और उनके सरोकारों की याद आती है और याद आती है जनप्रतिनिधियों की। यूं तो लोकतंत्र को जनता के द्वारा, जनता के लिए एवं जनका का शासन कहा जाता है परन्तु लोकतंत्र की सबसे बड़ी विडम्बना भी यही है कि तंत्र तो है परन्तु लोग हाशिए पर चले गए हैं। निश्चय ही यदि लोकतंत्रमें लोग हाशिए पर हैं तो इसके लिए लोकतंत्र के चारों स्तंभों को जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। लोकतंत्र के चारों स्तंभों का अपना-अपना दायित्व है सभी ने कहीं न कहीं अपने दायित्वों से मुख मोड़ लिया है। दायित्व से मुख मोडऩे के कारणों की तह में कहीं न कहीं अर्थतंत्र एवं उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष योगदान है। आज समाज के सभी वर्गों के बीच पैसे की अहमियत, इंसानियत के धर्म से ज्यादा महत्व रखती है। लोग पैसे को संबंधों से ज्यादा अहमियत देने लगे हैं। पहले योग्य एवं विद्वान लोगों का राजनीति से सरोकार होता था। लोग अपने दामन पर लगे एक दाग से भी शर्मसार हो जाते थे, परन्तु आज जनप्रतिनिधि अपनी गलतियों पर शर्मसार होने के बजाय कहते हैं कि दोष सिद्ध हुआ ही नहीं तो मैं कैसे गलत हो सकता हूं। साफतौर पर इसे चोरी एवं सीनाजोरी कहा जा सकता है। कहीं न कहीं यह नैतिकता में आ रही कमी के कारण हो रहा है। यही कारण है कि छोटे से छोटे मामले को लेकर भी लोग अदालत की शरण में जा रहे हैं। मूलभूत प्रश्र यह है कि यदि हम इसे राजनीति के अपराधीकरण का परिणाम कहें तो उन लोगों को क्या कहा जाए जिन्होंने इन आपराधिक छवि वाले वाले लोगों को टिकट देकर जनता को इन लोगों को चुनने के लिए विवश किया। राजनीति आज बाहुबलियों एवं धनपशुओं का अखाड़ा बन गया है। बदल गया है समाज का आदर्शजिसके पास पैसा है उसी का होता है सम्मानआज आदमी से ज्यादा उसके चोले की है पूछ काली करतूतों को छिपाने का आसान रास्ता सत्ता के गलियारे से होकर गुजरता है।राजनीति में जगह बनाने के लिए भी लोग बढ़ रहे हैं अपराध के रास्ते परअपराध का रास्ता न चुनने वाले चुनते हैं दो नंबर के धंधों कोदो नंबर के पैसे से आसान हो जाता है राजनीति का सफर
मेरी कलम
Thursday, August 4, 2022
अपने ही पहरुओं से शर्मसार लोकतंत्र....7 जुलाई 2009 का आलेख आज भी प्रासंगिक है।
कर्म के अनुसार मिलता है फल
भौतिक संसार में मनुष्य आता भी भगवान की मर्जी से है और जाता भी भगवान की मर्जी से है। बिना भगवान की मर्जी के कुछ भी नहीं हो सकता। मनुष्य व्यर्थ इस भ्रम में रहता है कि वह स्वयं सब कुछ कर रहा है। मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार फल भोगता है। जो कर्म मनुष्य करता है वह उसे याद नहीं रहता है। विपत्ति के समय ही उसे अपने बुरे कर्म याद आते हैं। उन्होंने कहा कि संसार में आने से पूर्व मनुष्य पूर्ण रूप से शुद्ध होता है, संसार में आने के बाद वह ठीक उसी प्रकार मैला हो जाता है, जैसे वर्षा का पानी आसमान से बरसता तो शुद्ध है, लेकिन पृथ्वी पर आने के बाद वह मैला हो जाता है। इस संसार समुद्र में मनुष्य गोते लगा रहा है, लेकिन उसको कहीं भी किनारा नहीं मिल रहा है। वह सत्य से भाग रहा है, जबकि सत्य की प्राप्ति केवल भगवद् पूजा, अर्चना एवं कीर्तन के माध्यम से ही हो सकता है।
Sunday, October 11, 2009
अकेलापन सिगरेट की तरह ही है खतरनाक
दूसरे से अलग-थलग रहना न केवल हमें दुखी करता है, बल्कि यह हमारे शरीर और दिमाग दोनों के लिए नुकसानदेह भी है। एक अध्ययन में पाया गया है कि अकेलापन स्वास्थ्य के लिए उतना ही खतरनाक है जितना मोटापा या सिगरेट पीना। अकेलापन इंसान को न सिर्फ दुखी मानसिकता वाला बनाता है, बल्कि उसके दिमाग की दूसरी क्षमताओं पर भी बुरा असर डालता है। दरअसल अकेलेपन से ब्लड प्रेशर और तनाव बढ़ता है। विशेषज्ञों का कहना है, अकेलेपन से व्यक्ति की इच्छाशक्ति कम होती है और स्वस्थ जीवन जीने की उसकी क्षमता पर भी असर पड़ता है। अकेलापन न सिर्फ व्यक्ति के व्यवहार पर असर डालता है बल्कि इससे शरीर में खून के दौरे पर दबाव भी बढ़ जाता है। अकेलापन बीमारियों से लड़ने वाली हमारी क्षमता के लिए भी नुकसानदेह है और यह हमें डिप्रेशन की तरफ ले जाता है। अकेले रहने वाले व्यक्ति अक्सर पूरी तरह स्वस्थ नहीं होते। वे कम या फिर बिल्कुल भी कसरत नहीं करते। वे ज्यादा खाना पसंद करते हैं, जिससे उनके शरीर में बसा और शुगर की मात्रा अधिक हो जाती है। अकेलेपन से व्यक्ति की याददाश्त भी कमजोर हो जाती है।
त्यौहार पर हावी बाज़ार
उल्लास, उमंग, उत्साह और उत्सव का दूसरा नाम भारतीय संस्कृति है। यहां हर पखवाडे कोई न कोई पर्व जनमानस को उल्लसित एवं उत्साहित किए रहता था लेकिन यह उत्साह एवं उल्लास अब देखने को नहीं मिलता। दिन दूना रात चौगुना बढ़ने वाली महंगाई ने आम आदमी की खुशियों पर ग्रहण लगा दिया है। आम आदमी इस महंगाई से परेशान है। आज येन-केन-प्रकारेण पैसा कमाने का चलन आम हो गया है। ईमानदार लोगों के दिल से उठने वाली उमंगों की तरंगे, चिंता व संताप के भंवर में डूबने लगी है। साथ ही बदलने लगी है त्योहारों की प्रकृत्ति। आर्थिक युग की विभीषिका का सबसे त्रासद पहलू यह है कि आज बाजार त्यौहार पर हावी है।भावनाएं अब हाशिए पर हैं। रक्षा बंधन से लेकर करवा चौथ, वट सावित्री, दिवाली, होली आदि सभी तीज-त्योहार फीके पड़ गए हैं। बाजार के कारण उपहार संस्कृति अब गिफ्ट सिस्टम में बदल गई है। रिश्तों के बंधन अब गिफ्ट पैक के ऊपर बंधे लाल-पीले फीतों की तरह बेहद कमजोर हो गए हैं। चंद रोज बाद दिवाली का त्योहार है लेकिन उल्लास दिलों की जगह बाजार में है। अब त्यौहारों की जानकारी बड़े-बूढ़े नहीं बल्कि बाजार देता है। बढ़ते बाजारवाद से त्यौहारों की प्रकृति और परंपराएं भी बदलने लगी हैं। जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण मिटटी के दीओं की जगह इलेक्ट्रॉनिक दीओं ने ले लिया है। इस पर्व पर लक्ष्मी पूजा का विधान है लेकिन आज के समय में लोग पूजा से ज्यादा पटाखों और मस्ती की तरफ़ ध्यान देते हैं।पूजा हाशिये पर धकेला जा रहा है। गिफ्ट देने की परम्परा चल परी है। यह केवल एक उदाहरण मात्र है। लगभग हर त्यौहार को बाजार द्वारा इसी तरह लक्ष्य बनाया जा रहा है। दिवाली पर मिठाइयां और कपड़े, होली पर तरह-तरह रंग और मुखौटे, नवरात्र में गरबा की धूम से बाजार सज जाता है।
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